शाम के वक़्त चिराग़ों सी जलाई हुई मैंघुप अन्धेरों की मुन्डेरों पे सजाई हुई मैं देखने वालों की नज़रों को लगूँ सादा वरक़तेरी तहरीर में हूँ ऐसे छुपाई हुई मैं ख़ाक कर के मुझे सहरा में उड़ाने वालेदेख रक़्स...
कब जागोगे! कवि: मिन्हाज रिज़वी रात मैं न्यूज़ देखते देखते कब सो गया मुझे पता ही नहीं चलायह रात मुझ पर बहुत भारी गुज़रीयह मेरा अंतर्द्वंद था कल्पना थी यथार्थ था या मात्र मेरा सपनाबहर हाल जो भी था भयावह था...
ग़ज़ल ज़िंदगी तेरी जुस्तजू लेकरक्यों भटकता हूं आरज़ू लेकर में जिसे चाहता हूं वह क्या हैक्या करेगा ये चीज़ तू लेकर रात गुजरी है जाग कर मेरीआंखें खुश हैं बहुत लहू लेकर ये कसक ,दुख,तड़प,चुभन मत पूछदिल की...