कथाकार: शमीम ज़हरा
एयर पोर्ट की सारी औपचारिकताओं को पूरा करके अब वह पन्द्रह साल के बाद भारत जाने वाले हवाई जहाज़ में है। ज़माना गुज़रा जब वह अपने पति मंसूर के साथ पाकिस्तान आ गई थी।
एक शहर, एक मौहल्ला, कुछ ख़ूबसूरत इमारतें, एक तहज़ीब और वह सब कुछ जो पीछे छूट गया था एक एक मंज़र निगाहों में ताज़ा है। उस शहर में अब्बा का पुश्तैनी घर था। कैसा भरा पुरा ख़ानदान था रिश्तों में रिश्ते थे, मामूँ, चचा, ख़ालाएँ, फुपियाँ उनके बच्चे, लड़के , लड़कियाँ – एक चहल पहल रहती थी। जो दूसरे शहरों में थे वो भी आते जाते रहते थे। इल्मो अदब का गहवारा था वो, मुशायरे, बैत बाज़ी, अदबी गुफ़्तगू का एक माहौल था। ख़ुशियाँ थीं और ग़म हों भी तो एक दूसरे का साथ पाकर कहाँ ठहरते थे।
लछमी जमादारिन, मनिहारिन बुआ, बदलू धोबी, किताब की दुकान वाले रमेश काका और कितने तो वो लोग थे जो रिश्तेदार नहीं थे लेकिन बेहद अपने थे। बेहिसाब मौहब्बतें लिए स्कूल कालिज की सहेलियाँ थीं . हिन्दू मुस्लिम सारे त्याहारों की ख़ुशियाँ थीं . पता नहीं अब कौन कौन वहाँ मिल सकेगा?
उसके तीनों बच्चे पाकिस्तान में पैदा हुए जिन्हें वह घर पर सास के पास छोड़ आई है। शौहर की नौकरी का कुछ हिस्सा इस्लामाबाद में और ज़्यादा लाहौर में गुज़रा। पंजाबी तहज़ीब में पले बढ़े बच्चे अँग्रेज़ी फ़र्राटे से बोलते और लिखते हैं। पंजाबी जानते और बोल सकते हैं, लेकिन वे उर्दू भी पंजाबी लहजे में बोलते हैं। घर में उर्दू की वह देसी मिठास खो गई है। काश बच्चे अब्बा से मिल पाते, लेकिन अब्बा तो अब रहे ही नहीं। दिल में टीस सी उठी अब्बा की शफ़क़त भरी निगाहें याद आईं। सुना है जाते वक़्त तक याद करते थे फिर नाउम्मीद चले गए । वह नहीं जा सकी थी। आँखों सें टपाटप गिरते आँसुओं को उसने रूमाल से पोंछ लिया और सीट बैल्ट बाँधने लगी।
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अलीगढ़ में उसने बी ए फ़र्स्ट ईयर में एडमीशन लिया था। हास्टल की ज़िन्दगी भी कितनी अच्छी थी। वह पर्दा नहीं करती थी फिर भी माहौल ऐसा था कि लड़कियों का लड़कों से कोई मेल जोल न था।
यूनिवर्सिटी की लायब्रेरी से किताबें लेने आते जाते उसने मंसूर को देखा था। वो वहाँ बहुत संजीदगी से पढ़ाई में मसरूफ़ रहते। उसे इस बात का पता था कि उसके आते ही वो नज़र बचा कर उसे देखते रहते हैं। उसे अपनी ख़ूबसूरती का एहसास था। पहले लगा था कि और भी लड़के क्या लड़कियाँ तक उसे पलट पलट कर देखते ही हैं, ये भी देखते हैं तो क्या हुआ। हैरानी ख़ुद पर तब हुई जब कुछ दिन बाद वह भी लाइब्रेरी में दाख़िल होते ही नज़रों ही नज़रों में अनजाने उन्हें ढूँढने लगी और फिर बहाने से बीच में कभी भी लाइब्रेरी में चक्कर लगा जाती। पता नहीं कौन सी कशिश थी कि बस खींच रही थी।
उस दिन भी दरवाज़े पर हाथ में किताबें लिए अन्दर जाने से पहले खड़ी हो कर वह लायब्रेरी में निगाहें दौड़ा रही थी और वह कहीं दिखाई न दे रहे थे। तब उसने अन्दर न जा कर वापिस लौटने का फ़ैसला लिया लेकिन एक क़दम मुड़ते ही वह जिससे टकराई वह मंसूर ही थे जो उसके ठीक पीछे खड़े उसकी निगाहों से की जा रही तलाश का मज़ा ले रहे थे। उसने घबरा कर “सारी” कहा तो उन्होंने बेतकल्लुफ़ हो सीधे पूछ लिया -“मुझे ढूँढ रही थीं न आप? ” उसका मुँह खुला का खुला रह गया जैसे चोरी पकड़ी गई हो, कुछ भी न कह सकी।
“मत बताइए कोई बात नहीं, चलिए कैन्टीन में चाय पीते हैं आइए .. आइए कुछ नहीं कहेंगे हम” उन्होंने आराम से कहा और वह जैसे कैन्टीन तक उनके पीछे बिना सोचे समझे चली आई।
इस तरह उनसे तार्रुफ़ हुआ। तार्रुफ़ के बाद लगभग हर दिन वह दोनों कैन्टीन में चाय पीते बातें करते बेतकल्लुफ़ होते गए। मंसूर एम ए कर रहे थे।
कब दो साल गुज़र गए पता ही नहीं चला।
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वे दो बहिन भाई थे। वह अब्बा की और छोटा भाई अम्मी की जान था। अब्बा उसके लिए नज़दीक ही रिश्ता ढूँढना चाहते थे ताकि उसे दूर न रहना पड़े।
एम ए के बाद मंसूर की नौकरी बैंक में लगी और वो अपनी अम्मी को लेकर लाहौर चले गए। जाने से पहले रिश्ता दिया तो अब्बा ने अपनी लाडली की पसन्द का मान रख लिया था और उन दोनों की मँगनी हो गई।
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जब मुल्क का बँटवारा हुआ तब उस वक़्त जो क़यामतें गुज़रीं वो तो थीं ही, उसके साथ कितने बरसों उसने कितने घरों, रिश्तों और दिलों को तोड़ा यह कोई कभी न जान सकेगा।
बटवारे के बाद उसे लगा था कि मंसूर और वह भी सदा के लिए बिछड़ गए हैं । सब ख़त्म हो चुका है क्योंकि वे तो लाहौर में रह गए थे।
दो साल गुज़र गए । बीच बीच में उनका कभी ख़त आता कि जैसे भी मुमकिन होगा वो रुख़सत कराने आएँगे। फिर लम्बी ख़ामोशी हो जाती। फिर आख़िर एक दिन वो आ गए और बहुत सादगी से उसका निकाह मंसूर से हो गया और वह रुख़सत हो कर पाकिस्तान आ गई और पाकिस्तानी नागरिक हो गई।
अपने माँ बाप भाई और वतन के छूट जाने का दुख यहाँ आकर उसने जाना। एक एक चीज़ क्या दरो दीवार तक याद आते हैं। मंसूर की मौहब्बत भी उस याद को कम न कर पाती थी । एक बार एक महीने की वीज़ा मिलने पर वे दोनों इन्डिया आए तो दिल को कुछ सुकून हुआ था कि आ जा तो सकते हैं लेकिन फिर जंग से दोनों मुल्कों के बीच ताल्लुक़ात ख़राब होते गए और वीज़ा मिलना मुश्किल हो गया। उसे नहीं समझ में आता सियासत के क्या आपसी झगड़े हैं … क्या छीन लेना चाहते हैं … क्यों लड़ते हैं ?
अब्बा बीमार हुए और दुनिया को अलविदा कह गए । भाई की शादी हो गई। माँ बीमार रहती हैं । पन्द्रह साल तड़प तड़प कर गुज़र गए।
अब पता नहीं कैसे सिफ़ारिश, गुज़ारिश और पैसा ख़र्च करके आखिर उसे वीज़ा मिली और वह भारत जा रही है … नहीं वह अपने घर अपने मुल्क जा रही है … दिल जैसे हिलोरें ले रहा है… सरहद मान लेने से मुल्क नहीं बँट जाता… इधर भी उधर भी सब अपने ही तो हैं.. हवाई जहाज भारत के शहरों के ऊपर से गुज़र रहा है … नहीं चाहिए सरहद.. कोई लकीर.. कोई दीवार कुछ भी नहीं.. अम्न चाहिए.. अपनों का साथ चाहिए.. एनाउन्स हो रहा है कि हम दिल्ली पहुँच रहे हैं… बस कुछ पल में हम वहाँ होंगे… खिड़की से नीचे का मंज़र दिखाई दे रहा है… बिल्कुल वैसी ही इमारतें बिखरी हैं वैसे ही इंसान हैं… हवाई जहाज़ चक्कर पर चक्कर काटता जा रहा है काफ़ी देर हो गई है … ……फिर एनाउन्स होता है… सभी मुसाफ़िर अपनी सीट बैल्ट बाँधे रहें हमें लैंड करने का सिग्नल न मिलने से हम वापिस लाहौर जा रहे हैं और हवाई जहाज़ ऊँचा और ऊँचा होता गया। उसके दिल को जैसे किसी ने मुट्ठी में जकड़ लिया है वह दुपट्टें में मुँह छिपाए फूट फूट कर रो रही है। सब आपस में पता नहीं क्या बातें कर रहे हैं।
लाहौर एयर पोर्ट पर मुसाफ़िरों को लाउन्ज में बैठने के लिए कहा गया है। वह रो रो कर थक चुकी है। तीन घन्टे बाद फिर सबको लेकर हवाई जहाज उड़ान भरता है। अब वह पत्थर जैसी बैठी है। एनाउन्समेंट हो रहा है …. हवाई जहाज़ ने दिल्ली एयरपोर्ट पर लैंड कर लिया है। सब मुसाफ़िर उतर रहे हैं। सीट बैल्ट खोलकर और हैंड बैग उठा कर वह भी जैसे रेले मे सीढ़ियों से नीचे उतर गई है। ज़मीन पर पैर रखते ही जैसे होश आ गया है “साहिबा! ये इण्डिया की ज़मीन है … साहिबा! तुम भारत में हो ” कुछ यक़ीन कुछ बेयक़ीनी का आलम है… कुछ दूर चल कर वह नीचे बैठ गई है ज़मीन पर हथेली रखती है और उस हथेली को उठा कर होठों से बार बार चूमती है। फिर खड़ी हुई है… आहिस्ता क़दमों से उसने बाहर निकलने के लिए सब औपचारिकताएँ पूरी की हैं… सामान वापिस लिया है। …. वह शायद सामने उसका छोटा भाई खड़ा है… ये इतना बूढ़ा कैसे हो गया… अब्बा का सदमा इसने अकेले कैसे सहा होगा.. अम्मा को कैसे सम्भाला होगा… लड़खड़ाते क़दमों से सूटकेस खींचती वह भाई के पास तक पहुँची और अगले ही पल बेहोश होकर उसके बाज़ुओं में झूल गई है।
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