खुली मानसिकता खुशहाल समाज का आधार होता है पर हर समाज को नसीब नहीं होता। इसलिए समस्याओं की लंबी श्रृंखला परम्परागत रूप से कायम रहती है। जरा सोचिए! जो लोग दुनिया के कई देशों का दौरा कर आए हैं, दुनिया के कुछ हिस्सों में हो चुके सकारात्मक सामाजिक बदलाव को जी चुके हैं, उन्हें अपने देश, अपने समाज के पिछड़ेपन को देख कर कितना दुख होता होगा! देश का सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन उनके कलेजे का टिस बन चुका है।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश के कई प्रतिष्ठित बैंकों में काम किया। दुनिया को देखने की ललक ने मुझे विदेशों में नौकरी करने को प्रेरित किया । फिर क्या था, निकल पड़ी दुनिया की सैर करने। विदेशी बैंकों में लंबे समय तक काम करने का मौका मिला। इसी क्रम में मुझे देश-दुनिया की कई संस्कृतियों से परिचय हुआ।
सामाजिक व्यवस्था का लचीलापन
पश्चिमी देशों की सामाजिक व्यवस्था में जो लचीलापन है, उसने लोगों का खुलकर जीना आसान कर दिया है। जिस समाज की मानसिकता संकुचित होती है वहां जीवन में थकावट ज्यादा होती है। पश्चिमी देशों में, पूर्वी देश जापान आदि विकसित देशों में लोग इसलिए ज्यादा काम कर पाते हैं क्योंकि वहाँ लोगों पर सामाजिक निगरानी नहीं थोपी जाती है। वहां हर किसी को अपने जीवन के निर्णय लेने के अधिकार होते हैं।
जाति और धर्म का बंधन
कोई भी समाज तभी कामगार हो सकता है जब वह जाति और धर्म के संकुचित बंधनों से मुक्त रहे। एक मेहनतकश समाज ही प्रगतिशील हो सकता है। लेकिन कोई भी समाज मेहनतकश तभी हो सकता है जब उसे जाति-धर्म के प्रभावों से दूर रखा जाए। क्योंकि जाति जन्म आधारित भेदभाव को हमेशा प्रश्रय देता है। अगर आप जाति व्यवस्था को मानते हैं तो छोटी जाति के लोग चाहे कितने ही कुशल क्यों न हो हमेशा पिछड़ेपन का ही शिकार रहते हैं।
विज्ञान और तकनीक के दौर की चुनौती
विज्ञान और तकनीक के इस दौर में हमारे देश के लिए अच्छी शिक्षा और उचित पोषण एक चुनौती बनी है। हमारी सरकार आज तक एक ऐसे माहौल बनाने में असफल रही है जिसमें हर किसी के लिए शिक्षा सुलभ हो सके। अच्छी शिक्षा का अभाव ही बेरोजगारी के मूल में है। आज छोटी-छोटी नौकरियों के चक्कर में इंसान एक राज्य से दूसरे राज्य में भटकता रहता है फिर भी बेरोजगार रहता है। अगर सरकार ऐसी नीति बनाती जो स्वरोजगार को बढ़ावा देती तो काम के लिए भटकने वाले आज कामगार बन जाते।
By रूबी जौहर
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