ग़ज़ल
कवि:सलीम जावेद
वहशत से नारसाई से ग़म से फि़राक़ से
इन सब से वास्ता है मिरा इत्तेफा़क़ से
इंसानियत के प्यार के महरो खुलूस के
गा़यब हैं सब चराग़ मिरे घर के ताक़ से
मैं ने विसाल लिख दिया कल आसमान पर
खु़श हो गया है चांद मिरे इश्तियाक़ से
इक रास्ता रुजूअ का है दरमियां मगर
दिल कांप कांप जाता है लफ़्ज़े तलाक़ से
शहरे गुमां में मौत की दस्तक से डर गए
जो लोग जी रहे थे बड़े तुमतुराक़ से
खु़शहाल ज़िंदगी से वो मैहरूम हो गए
मजबूर थे जो लोग दिलों के निफा़क़ से
इक माह रू ने कह दिया जाने वफा़ “सलीम”
ता उम्र शादमां रहे उसके मजा़क़ से
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