शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुंचाने वालो शुक्रिया
अब अकेले ही चले जाऐंगे इस मंज़िल से हम
क़मर जलालवी
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या में किसी मज़ार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
चिराग़ उसने बुझा भी दिया जला भी दिया
ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया
बशीर उद्दीन अहमद देहलवी
ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पैर फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
बशीर बदर
फूल क्या डालोगे तुर्बत पर मेरी
ख़ाक भी तुमसे ना डाली जाएगी
मुबारक अज़ीमाबादी
वो आएं फ़ातिहा पढ़ने ,अब एतबार तो नहीं
कि रात हो गई देखा हुआ मज़ार नहीं
कफ़न हटा कर वो मुँह बार-बार देखते हैं
अभी उन्हें मेरे मरने का एतबार नहीं
क़मर जलालवी
लाता नहीं कोई मेरी तुर्बत पे चार फूल
ना-पैद ऐसे हो गए परवरदिगार फूल
क़मर जलालवी
क़ब्र पर शायरी
क्योंकर रखोगे हाथ दिल-ए-बेक़रार पर
मैं तो तह-ए-मज़ार हूँ तुम तो हो मज़ार पर
क़मर जलालवी
जला जला के पस-ए-मर्ग क्या मिलेगा तुम्हें
बुझा बुझा के चिराग़-ए-मज़ार क्या होगा
क़मर जलालवी
मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
सख़्त बे-ताब हैं मज़ार में हम
लाश पर तो ख़ुदा के वास्ते आ
मर गए तेरे इंतिज़ार में हम
मुस्तुफ़ाई ख़ान शेफ़्ता
था क्या हुजूम बहर-ए-ज़यारत हज़ार का
गुल हो गया चिराग़ हमारे मज़ार का
मुस्तुफ़ाई ख़ान शेफ़्ता
मुझे मानते सब ऐसा कि अदु भी सज्दे करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता
दाग़ देहलवी
मर गए हैं जो हिज्र-ए-यार में हम
सख़्त बे-ताब हैं मज़ार में हम
लाश पर तो ख़ुदा के वास्ते आ
मर गए तेरे इंतिज़ार में हम
मुस्तुफ़ाई ख़ान शेफ़्ता
हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों ना ग़र्क़-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता ना कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब