शहर-ए-सुख़न में ऐसा कुछ कर इज़्ज़त बन जाये
सब कुछ मिट्टी हो जाता है इज़्ज़त रहती है
अमजद इस्लाम अमजद
आपकी कौन सी बढ़ी इज़्ज़त
मैं अगर बज़म में ज़लील हुआ
मोमिन ख़ां मोमिन
अपने लिए ही मुश्किल है
इज़्ज़त से जी पाना भी
अज़ीज़ अंसारी
जिसको चाहें बेइज़्ज़त कर सकते हैं
आप बड़े हैं आपको ये आसानी है
माजिद देवबंदी
मांगने वालों को क्या इज़्ज़त-ओ-रुस्वाई से
देने वालों की अमीरी का भरम खुलता है
वहीद अख़तर
हुए ज़लील तो इज़्ज़त की जुस्तजू क्या है
किया जो इशक़ तो फिर पास-ए-आबरू क्या है
तहसीन देहलवी
मआल इज़्ज़त-ए-सादात इशक़ देख के हम
बदल गए तो बदलने पे इतनी हैरत किया
इफ़्तिख़ार आरिफ़
इज़्ज़त पर शायरी
सारी इज़्ज़त नौकरी से इस ज़माने में है मुहर
जब हुए बेकार बस तौक़ीर आधी रह गई
हातिम अली महर
इज़्ज़त का है ,ना औज, ना नेकी की मौज है
हमला है अपनी क़ौम पे ,लफ़्ज़ों की फ़ौज है
अकबर इला आबादी
दिल के है सरमाया दार, इज़्ज़त-ओ-नामूस हसन
है यही मर्कज़ यही है दायरा मेरे लिए
मुसल्लेह उद्दीन अहमद असीर काकोरवी
शेअर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहरे इज़्ज़त दारां है
तुम तो रसा बदनाम हुए क्यों औरों को बदनाम करूँ
रसा चुग़्ताई
हमेशा ग़ैर की इज़्ज़त तेरी महफ़िल में होती है
तिरे कूचे में जा कर हम ज़लील-ओ-ख़ार होते हैं
शौकत थानवी
झूट और मुबालग़ा ने अफ़सोस
इज़्ज़त खो दी सुख़नवरी की
इस्माईल मेरठी
तिरे हाथों में है तेरी क़िस्मत
तेरी इज़्ज़त तिरे ही काम से है
आबिद वदूद
इज़्ज़त पर शायरी
फिरते हैं मीर ख़ार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई
मीर तक़ी मीर
मेरी रुस्वाई अगर साथ ना देती मेरा
यूं सर-ए-बज़्म मैं इज़्ज़त से निकलता कैसे
अख़तर शुमार
ज़िंदगी-भर की कमाई यही मिसरे दो-चार
इस कमाई पे तो इज़्ज़त नहीं मिलने वाली
इफ़्तिख़ार आरिफ़
वो फूल सर चढ़ा जो चमन से निकल गया
इज़्ज़त उसे मिली जो वतन से निकल गया
अमीर मीनाई
ग़रीब को हवस ज़िंदगी नहीं होती
बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है
वक़ार मानवी
कुछ नौजवान शहर से आए हैं लौट कर
अब दाव पर लगी हुई इज़्ज़त है गांव की