कोई समझे तो एक बात कहूं
इशक़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं
फ़िराक़-गोरखपुरी
इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यूं ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
इस भरोसे पे कर रहा हूँ गुनाह
बख़श देना तो तेरी फितरत है
नामालूम
मेरे गुनाह ज़्यादा हैं या तेरी रहमत
करीम तू ही बता दे हिसाब कर के मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी
आता है दाग़-ए-हसरत दिल का शुमार याद
मुझसे मेरे गुना का हिसाब ऐ ख़ुदा ना मांग
मिर्ज़ा ग़ालिब
गुनाह गिन के मैं क्यों अपने दिल को छोटा करूँ
सुना है तेरे करम का कोई हिसाब नहीं
यगाना चंगेज़ी
गुनाह पर शायरी
फ़रिश्ते हश्र में पूछेंगे पाक बाज़ों से
गुनाह क्यों ना किए क्या ख़ुदा ग़फ़ूर ना था
नामालूम
तेरी बख़शिश के भरोसे पे ख़ताएँ की हैं
तेरी रहमत के सहारे ने गुनहगार किया
मुबारक अज़ीमाबादी
पूछेगा जो ख़ुदा तो ये कह देंगे हश्र में
हाँ हाँ गुणा किया तेरी रहमत के ज़ोर पर
नामालूम
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गई फ़ुर्सत
हमें गुनाह भी करने को ज़िंदगी कम है
आनंद नारायण मुल्ला
गुनाह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता किया है
चकबस्त बुरज नारायण
देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियां दरिया में डाल कर
मुहम्मद अलवी
शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की
तौबा के साथ तोड़िए बोतल शराब की
ज़हीर देहलवी
गुनाह पर शायरी
वो जो रात मुझको बड़े अदब से सलाम कर के चला गया
उसे क्या ख़बर मरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी
अहमद मुश्ताक़
रहमतों से निबाह में गुज़री
उम्र सारी गुनाह में गुज़री
शकील बदायूंनी
गुनाहों से हमें रग़बत ना थी मगर यारब
तेरी निगाह-ए-करम को भी मुँह दिखाना था
नरेश कुमार शाद
सुना है ख़ाब मुकम्मल कभी नहीं होते
सुना है इशक़ ख़ता है सो कर के देखते हैं
हुमैरा राहत
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा ना सका
जो बेगुनाह था वो भी नज़र मिला ना सका
नुशूर वाहिदी
मेरे ख़ुदा ने किया था मुझे असीरे बहिश्त
मेरे गुनह ने रिहाई मुझे दिलाई है
अहमद नदीम क़ासिमी
मुहब्बत नेक-ओ-बद को सोचने दे ग़ैर मुम्किन है
बढ़ी जब बे-ख़ुदी फिर कौन डरता है गुनाहों से
आरज़ू लखनवी
गुनाह पर शायरी
इशक़ में वो भी एक वक़्त है जब
बेगुनाही गुनाह है प्यारे
आनंद नारायण मुल्ला
अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे
था नेक दिल बहुत जो गुनहगार मुझमें था
हिमायत अली शायर
ख़ुद-परस्ती ख़ुदा ना बन जाये
एहतियातन गुनाह करता हूँ
अकबर हैदराबादी
लज़्ज़त कभी थी अब तो मुसीबत सी हो गई
मुझको गुनाह करने की आदत सी हो गई
बीख़ोद मोहानी
गुनाह कर के भी हम रिंद पाक साफ़ रहे
शराब पी तो नदामत ने आब-आब किया
जलील मानक पूरी
मुझे गुनाह में अपना सुराग़ मिलता है
वगरना पार्सा-ओ-दीन-दार में भी था
साक़ी फ़ारूक़ी
रूह में रेंगती रहती है गुनाह की ख़ाहिश
इस अमरबेल को इक दिन कोई दीवार मिले
साक़ी फ़ारूक़ी
गुनाह पर शायरी
नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
या रब अगर इन करदा गुनाहों की सज़ा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
फिर जुर्रत गुनाह ना की हम भी चुप रहे
हफ़ीज़ जालंधरी
महसूस भी हो जाये तो होता नहीं बयाँ
नाज़ुक सा है जो फ़र्क़، गुनाह-ओ-सवाब में
नरेश कुमार शाद
याद आए हैं उफ़ गुनाह क्या- क्या
हाथ उठाए हैं जब दुआ के लिए
ज़की काकोरवी
कहेगी हश्र के दिन उस की रहमत बेहद
कि बेगुनाह से अच्छा गुनाह-गार रहा
हिजर नाज़िम अली ख़ान
क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वर्ना यूं फ़रेब में आता बहार के
गोपाल मित्तल
ज़ाहिद उम्मीद ,रहमत-ए-हक़ और हज्जो-ए-मय
पहले शराब पी के गुनाह-गार भी तो हो
अमीर मीनाई
ये क्या कहूं कि मुझको कुछ गुनाह भी अज़ीज़ हैं
ये क्यों कहूं कि ज़िंदगी सवाब के लिए नहीं
महबूब ख़िज़ां
गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत जमाल से मैं
गुनाह करता हुआ नेकियां कमाता हुआ
अख़तर रज़ा सलीमी