जब छेड़ती हैं उनको गुमनाम आरज़ूऐं
वो मुझको देखते हैं मेरी नज़र बचा के
अली जव्वाद ज़ैदी
वो एक शख़्स कि गुमनाम था ख़ुदाई में
तुम्हारे नाम के सदक़े में नामवर ठहरा
हमीद कौसर
जमी है गर्द आँखों में कई गुमनाम बरसों की
मरे अंदर ना जाने कौन बूढ़ा शख़्स रहता है
अज़हर नक़वी
गुमनाम एक लाश कफ़न को तरस गई
काग़ज़ तमाम शहर के अख़बार बन गए
इशरत धूलपूर
क्या ग़म है जो हम गुमनाम रहे तुम तो ना मगर बदनाम हुए
अच्छा है कि मेरे मरने पर दुनिया में मेरा मातम ना हुआ
सुहेल आबाद य
गुमनाम शायरी
अब तो मुझको भी नहीं मिलती मेरी कोई ख़बर
कितना गुमनाम हुआ हूँ मैं नुमायां हो कर
अज़हर नक़वी
छुपे हैं लाख हक़ के मरहले गुमनाम होंटों पर
इसी की बात चल जाती है जिसका नाम चलता है
शकील बद एवनी
कुछ मार्के हमारे भी हम तक ही रह गए
गुमनाम इक सिपाही की ख़िदमात की तरह
सय्यद अनवार अहमद
अपना ख़त आप दिया उनको मगर ये कह कर
ख़त तो पहचानिए ये ख़त मुझे गुमनाम मिला
कैफ़ी
शम्मा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिए
हम इसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं
क़तील शिफ़ाई
मक़तल वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह
दिल भी काम आया है गुमनाम सिपाही की तरह
प्रवीण शाकिर