बुढ़ापे पर शायरी
कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लोटती नहीं
जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला
अबद अलहमेद अदम
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
बूढ़ों को भी जो मौत ना आए तो क्या करें
अकबर इला आबादी
सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा
मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर
ज़फ़र इक़बाल
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है
मीर तक़ी मीर
बुढ़ापे पर शायरी
मैं तो मुनीर आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी ज़माने में
मुनीर नियाज़ी
गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं कम जो मैं जवाँ ना रहा
वही है आग मगर आग में धुआँ ना रहा
जिगर मुरादाबादी
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें
शेख़ इबराहीम ज़ौक़ध
मौत के साथ हुई है मरी शादी सो ज़फ़र
उम्र के आख़िरी लमहात में दूलहा हवा में
ज़फ़र इक़बाल
दिल-ए-फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
उम्र-भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है
अहमद मुश्ताक़
बुढ़ापे पर शायरी
तलातुम आरज़ू में है ना तूफ़ाँ जुस्तजू में है
जवानी का गुज़र जाना है दरिया का उतर जाना
तिलोक चंद महरूम
पीरी में वलवले वो कहाँ हैं शबाब के
इक धूप थी कि साथ गई आफ़ताब के
मुंशी ख़ुशवक़त अली ख़ुरशीद
ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
फिर जुर्रत गुनाह ना की، हम भी चुप रहे
हफ़ीज़ जालंधरी
रुख़स्त हुआ शबाब तो अब आप आए हैं
अब आप ही बताईए सरकार क्या करें
अमीर चंद बहार
पीरी में शौक़ हौसला-फ़रसा नहीं रहा
वो दिल नहीं रहा वो ज़माना नहीं रहा
अबद उल-ग़फ़ूर निसाख़
अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
रंग मौजों का बदल जाता है साहिल के क़रीब
हादी मछलीशहरी