लेखक: दुष्यन्त
सबसे आसान शब्दों में तारीख यानी इतिहास वाकयात का सिलसिला है। पर उससे आगे की बात है कि इतिहास गुजरे हुए वक़्त को अपने नज़रिए से, किसी खास नज़रिए से देखना है। उस नज़र में में मिलावट सम्भव भी है और वाजिब भी। उस नज़र की वह मिलावट कितनी हो, यह सोचने वाली बात है, बहस वाली बात भी हो ही सकती है। हिंदी के बड़े कवि नागार्जुन से किसी ने एक बार पूछा कि साहित्य में विचार (यानी नज़र की मिलावट) कितनी होनी चाहिए? तो बाबा ने सुंदर जवाब दिया, वह ज्ञान के सभी अनुशासनों पर लागू किया जा सकता है, बाबा के शब्द थे- ‘सब्जी में हींग जितना! महक रहे, हींग ज़्यादा हो तो सब्जी का स्वाद बेस्वाद हो जाता है। ‘ इतिहास लेखन के लिहाज से भी बाबा का यह ‘हींग सूत्र’ मुझे बेहद मूल्यवान लगता है।
पहले दो ज़रूरी बाते, पहली, सत्ता के पक्ष या विपक्ष का कोई एक झंडा उठाकर इतिहास लिखना या उसे देखना इतिहास के साथ अन्याय है। याद रहता है, दर्शनशास्त्र के मेरे एक प्रोफेसर कहते थे कि बौद्धिक व्यक्ति के लिए सत्य की खोज और लालसा सबसे बड़ा वर्च्यु होना चाहिए, कोई भी विचार सत्य के लिए सीढ़ी बने, पांव की बेड़ी नहीं कि उंस विचार की परिधि के एकतरफा सच से आगे देख ही न सको।
दूसरी, इतिहास की अनजान या नई गलियों में घुसने से पहले अच्छे सवाल उठाने की तमीज़ और तरबियत भी ज़रूरी है। यही दुविधा भी है, चुनौती भी कि स्थापनाएं सब देना चाहते हैं, अपनी स्थापनाओं को प्रश्नांकित किया जाना सबको असहनीय हो चला है।
तो, इतिहास का समकाल प्रेजेंट परफेक्ट टेन्स होता है, पास्ट और प्रेजेंट की संधि पर। इतिहास लेखन में सबसे संवेदनशील और मुश्किल होता है, इस क्षण का इतिहास। निकट भूतकाल के साथ वर्तमान का एक सघन भावनात्मक जुड़ाव बना रहता है, जो धीरे धीरे कम होता है कि हम वस्तुनिष्ठ सच को देख,समझ, स्वीकार सकें। कहना चाहिए कि जैसे थाने की एफआईआर और जज के निर्णय में एक लम्बी भावनात्मक तथ्यात्मक दूरी होती है।
तारीखदान यानी इतिहासकार की चिंताएं तो अपार होती ही हैं, उसकी चुनौतियों और पीड़ाओं का भी कोई ओर- छोर नहीं है, उदाहरण के तौर पर पंजाबी लोक कथाओं का नायक ‘दुल्ला भट्टी’ अकबर के राजस्व सिस्टम का बागी है तो दोनों में से एक खलनायक बनता है, यह इतिहास की नज़र है जो तय करती है कि क्या रखना है, क्या छोड़ देना है, रखना है तो उसे किस खांचे में सजाना है। इतिहासकार की व्यक्तिगत धारणाएं, राग द्वेष, लालच- महत्वकांक्षाएं वह तो रहनी ही हैं, क्योंकि वह मनुष्य है। जैसा पश्चिम के बड़े इतिहास दार्शनिक मानकर कह गए हैं कि इतिहास में सम्पूर्ण वस्तुनिष्ठता सम्भव ही नहीं है, कोशिश रहे कि हम यथासंभव वस्तुनिष्ठता को छूने को आतुर रहें, कोशिश करते रहें।
कौन इतिहासकार विमर्श के स्तर पर इससे इनकार करेगा भला कि जब भारत की आज़ादी के बाद स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास उस दल की सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लिखवाया गया जिसका उस आंदोलन में बड़ा और सक्रिय योगदान रहा, तो इतिहास लिखे जाने में तत्सम्बन्धी भावुकता के साथ समकाल लेखन की सीमाएं और चुनौतियां नहीं रही होंगी, और कितनी ही बार उन सीमाओं को मानवीय भूलों के तहत लांघ पाना सम्भव नहीं हुआ होगा और नतीजे के रूप में इतिहास लेखन को ज्ञान के एक अनुशासन के रूप में नुकसान हुआ होगा!
जोड़ना प्रासंगिक है कि एजेंडों, प्रोपगैंडा, देश या खास नायकों के महिमामण्डनों की प्रक्रिया में हम दास्तानों को इतिहास मानने लगते हैं, तो इतिहास एक निरीह बकरी में रूपांतरित हो जाता है जो मिमियाती रहती है, वह शेर का शिकार भी बनती है, हथियार भी। यह सामूहिक अपराध है जिसमें हम सब अपने ही खिलाफ शामिल होते हैं।
दुनिया के प्रायः देशों में अभिलेखागारीय रिकॉर्ड्स को सार्वजनिक किए जाने के लिए एक खास न्यूनतम अवधि बीत जाने का प्रावधान है।, जो लगभग 70-80 साल है। ठीक वैसे ही जैसे नोबल पुरस्कार के नॉमिनेशंस को सार्वजनिक किए जाने की न्यूनतम समय सीमा 50 साल है, यानी 2022 में लगभग 1970 तक के पुरस्कारों के लिए ही किसी विषय में नोबल पुरस्कार के लिए अंतिम शॉर्टलिस्टेड सूची के नाम सार्वजनिक किए गए हैं। यह समकालीनता के भावुक पक्षों का ही रूप है।
हालांकि यूँ समय भी एक मिथक ही है। इटली की भौतिकविद कार्लो रोवेली की किताब कुछ साल पहले आयी थी- द ऑर्डर ऑफ टाइम यानी समय का क्रम। स्टीफन हॉकिंग की विश्व प्रसिद्ध, बेस्टसेलर किताब ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ को विचार के स्तर पर कार्लो रोवेली की यह किताब आगे ले जाती है। किताब भौतिकी और दर्शनशास्त्र के संधिस्थल पर है…पर मैं इससे इतिहास के सबक निकालने की कोशिश करता है तो पाता हूँ कि समय को ऐसे समझना चाहिए कि समय को समझने की कोशिश ही न की जाए.. पर क्या यह सम्भव है? फिर तो यह उलटबांसी हुई, विरोधाभास हुआ। अल्बर्ट आइंस्टीन, ऑगस्टाइन से लेकर कार्लो तक माना कि समय पहाड़ों पर समन्दरों की बजाय अलग तरह से गतिमान होता है, वही तय करता है कि हम कैसे जीएं.. जब वैज्ञानिक रूप से समय की सत्ता ही नहीं है तो अतीत और भविष्य का कोई भेद ही नहीं है! पर इतिहास के लिए समयबोध एक उपमा भी है, उपमान भी। इसलिए इतिहास लेखन की समकालिकता की चुनौती और चिंता ‘नादान की दोस्ती, जी का जंजाल’ मुहावरे से ही समझी जा सकती है।
लेखक चर्चित फिल्म गीतकार- स्क्रिप्ट राइटर और स्वतंत्र इतिहासकार हैं